Sunday, September 12, 2010

हिंदी व्याकरण

भाषा, व्याकरण और बोली
भाषा अभिव्यक्ति का एक ऐसा समर्थ साधन है जिसके द्वारा मनुष्य अपने विचारों को दूसरों पर प्रकट कर सकता है और दूसरों के विचार जाना सकता है।
संसार में अनेक भाषाएँ हैं। जैसे-हिन्दी,संस्कृत,अंग्रेजी, बँगला,गुजराती,पंजाबी,उर्दू, तेलुगु, मलयालम, कन्नड़, फ्रैंच, चीनी, जर्मन इत्यादि।

भाषा के प्रकार- भाषा दो प्रकार की होती है-
1. मौखिक भाषा।
2. लिखित भाषा।

आमने-सामने बैठे व्यक्ति परस्पर बातचीत करते हैं अथवा कोई व्यक्ति भाषण आदि द्वारा अपने विचार प्रकट करता है तो उसे भाषा का मौखिक रूप कहते हैं।
जब व्यक्ति किसी दूर बैठे व्यक्ति को पत्र द्वारा अथवा पुस्तकों एवं पत्र-पत्रिकाओं में लेख द्वारा अपने विचार प्रकट करता है तब उसे भाषा का लिखित रूप कहते हैं।
व्याकरण
मनुष्य मौखिक एवं लिखित भाषा में अपने विचार प्रकट कर सकता है और करता रहा है किन्तु इससे भाषा का कोई निश्चित एवं शुद्ध स्वरूप स्थिर नहीं हो सकता। भाषा के शुद्ध और स्थायी रूप को निश्चित करने के लिए नियमबद्ध योजना की आवश्यकता होती है और उस नियमबद्ध योजना को हम व्याकरण कहते हैं।

परिभाषा- व्याकरण वह शास्त्र है जिसके द्वारा किसी भी भाषा के शब्दों और वाक्यों के शुद्ध स्वरूपों एवं शुद्ध प्रयोगों का विशद ज्ञान कराया जाता है।
भाषा और व्याकरण का संबंध- कोई भी मनुष्य शुद्ध भाषा का पूर्ण ज्ञान व्याकरण के बिना प्राप्त नहीं कर सकता। अतः भाषा और व्याकरण का घनिष्ठ संबंध हैं वह भाषा में उच्चारण, शब्द-प्रयोग, वाक्य-गठन तथा अर्थों के प्रयोग के रूप को निश्चित करता है।

व्याकरण के विभाग- व्याकरण के चार अंग निर्धारित किये गये हैं-
1. वर्ण-विचार।
2. शब्द-विचार।
3. पद-विचार।
4. वाक्य विचार।


बोली
भाषा का क्षेत्रीय रूप बोली कहलाता है। अर्थात् देश के विभिन्न भागों में बोली जाने वाली भाषा बोली कहलाती है और किसी भी क्षेत्रीय बोली का लिखित रूप में स्थिर साहित्य वहाँ की भाषा कहलाता है।
लिपि
किसी भी भाषा के लिखने की विधि को ‘लिपि’ कहते हैं। हिन्दी और संस्कृत भाषा की लिपि का नाम देवनागरी है। अंग्रेजी भाषा की लिपि ‘रोमन’, उर्दू भाषा की लिपि फारसी, और पंजाबी भाषा की लिपि गुरुमुखी है।
साहित्य
ज्ञान-राशि का संचित कोश ही साहित्य है। साहित्य ही किसी भी देश, जाति और वर्ग को जीवंत रखने का- उसके अतीत रूपों को दर्शाने का एकमात्र साक्ष्य होता है। यह मानव की अनुभूति के विभिन्न पक्षों को स्पष्ट करता है और पाठकों एवं श्रोताओं के हृदय में एक अलौकिक अनिर्वचनीय आनंद की अनुभूति उत्पन्न करता है।

अध्याय 2

वर्ण-विचार
हिन्दी भाषा में प्रयुक्त सबसे छोटी ध्वनि वर्ण कहलाती है। जैसे-अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, क्, ख् आदि।
वर्णमाला
वर्णों के समुदाय को ही वर्णमाला कहते हैं। हिन्दी वर्णमाला में 44 वर्ण हैं। उच्चारण और प्रयोग के आधार पर हिन्दी वर्णमाला के दो भेद किए गए हैं-
1. स्वर
2. व्यंजन
स्वर
जिन वर्णों का उच्चारण स्वतंत्र रूप से होता हो और जो व्यंजनों के उच्चारण में सहायक हों वे स्वर कहलाते है। ये संख्या में ग्यारह हैं-
अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ, ए, ऐ, ओ, औ।






उच्चारण के समय की दृष्टि से स्वर के तीन भेद किए गए हैं-
1. ह्रस्व स्वर।
2. दीर्घ स्वर।
3. प्लुत स्वर।
1. ह्रस्व स्वर
जिन स्वरों के उच्चारण में कम-से-कम समय लगता हैं उन्हें ह्रस्व स्वर कहते हैं। ये चार हैं- अ, इ, उ, ऋ। इन्हें मूल स्वर भी कहते हैं।
2. दीर्घ स्वर
जिन स्वरों के उच्चारण में ह्रस्व स्वरों से दुगुना समय लगता है उन्हें दीर्घ स्वर कहते हैं। ये हिन्दी में सात हैं- आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ।
विशेष- दीर्घ स्वरों को ह्रस्व स्वरों का दीर्घ रूप नहीं समझना चाहिए। यहाँ दीर्घ शब्द का प्रयोग उच्चारण में लगने वाले समय को आधार मानकर किया गया है।
3. प्लुत स्वर
जिन स्वरों के उच्चारण में दीर्घ स्वरों से भी अधिक समय लगता है उन्हें प्लुत स्वर कहते हैं। प्रायः इनका प्रयोग दूर से बुलाने में किया जाता है।
मात्राएँ
स्वरों के बदले हुए स्वरूप को मात्रा कहते हैं स्वरों की मात्राएँ निम्नलिखित हैं-
स्वर मात्राएँ शब्द
अ × कम
आ ा काम
इ ि किसलय
ई ी खीर
उ ु गुलाब
ऊ ू भूल
ऋ ृ तृण
ए े केश
ऐ ै है
ओ ो चोर
औ ौ चौखट
अ वर्ण (स्वर) की कोई मात्रा नहीं होती। व्यंजनों का अपना स्वरूप निम्नलिखित हैं-
क् च् छ् ज् झ् त् थ् ध् आदि।
अ लगने पर व्यंजनों के नीचे का (हल) चिह्न हट जाता है। तब ये इस प्रकार लिखे जाते हैं-
क च छ ज झ त थ ध आदि।


व्यंजन
जिन वर्णों के पूर्ण उच्चारण के लिए स्वरों की सहायता ली जाती है वे व्यंजन कहलाते हैं। अर्थात व्यंजन बिना स्वरों की सहायता के बोले ही नहीं जा सकते। ये संख्या में 33 हैं। इसके निम्नलिखित तीन भेद हैं-
1. स्पर्श
2. अंतःस्थ
3. ऊष्म
1. स्पर्श
इन्हें पाँच वर्गों में रखा गया है और हर वर्ग में पाँच-पाँच व्यंजन हैं। हर वर्ग का नाम पहले वर्ग के अनुसार रखा गया है जैसे-
कवर्ग- क् ख् ग् घ् ड़्
चवर्ग- च् छ् ज् झ् ञ्
टवर्ग- ट् ठ् ड् ढ् ण् (ड़् ढ़्)
तवर्ग- त् थ् द् ध् न्
पवर्ग- प् फ् ब् भ् म्
2. अंतःस्थ
ये निम्नलिखित चार हैं-
य् र् ल् व्
3. ऊष्म
ये निम्नलिखित चार हैं-
श् ष् स् ह्

वैसे तो जहाँ भी दो अथवा दो से अधिक व्यंजन मिल जाते हैं वे संयुक्त व्यंजन कहलाते हैं, किन्तु देवनागरी लिपि में संयोग के बाद रूप-परिवर्तन हो जाने के कारण इन तीन को गिनाया गया है। ये दो-दो व्यंजनों से मिलकर बने हैं। जैसे-क्ष=क्+ष अक्षर, ज्ञ=ज्+ञ ज्ञान, त्र=त्+र नक्षत्र कुछ लोग क्ष् त्र् और ज्ञ् को भी हिन्दी वर्णमाला में गिनते हैं, पर ये संयुक्त व्यंजन हैं। अतः इन्हें वर्णमाला में गिनना उचित प्रतीत नहीं होता।
अनुस्वार
इसका प्रयोग पंचम वर्ण के स्थान पर होता है। इसका चिन्ह (ं) है। जैसे- सम्भव=संभव, सञ्जय=संजय, गड़्गा=गंगा।
विसर्ग
इसका उच्चारण ह् के समान होता है। इसका चिह्न (:) है। जैसे-अतः, प्रातः।
चंद्रबिंदु
जब किसी स्वर का उच्चारण नासिका और मुख दोनों से किया जाता है तब उसके ऊपर चंद्रबिंदु (ँ) लगा दिया जाता है।
यह अनुनासिक कहलाता है। जैसे-हँसना, आँख।

हिन्दी वर्णमाला में 11 स्वर तथा 33 व्यंजन गिनाए जाते हैं, परन्तु
इनमें ड़्, ढ़् अं तथा अः जोड़ने पर हिन्दी के वर्णों की कुल संख्या 48 हो जाती है।
हलंत
जब कभी व्यंजन का प्रयोग स्वर से रहित किया जाता है तब उसके नीचे एक तिरछी रेखा (्) लगा दी जाती है। यह रेखा हल कहलाती है। हलयुक्त व्यंजन हलंत वर्ण कहलाता है। जैसे-विद् या।
वर्णों के उच्चारण-स्थान
मुख के जिस भाग से जिस वर्ण का उच्चारण होता है उसे उस वर्ण का उच्चारण स्थान कहते हैं।
उच्चारण स्थान तालिकाक्रम वर्ण उच्चारण श्रेणी
1. अ आ क् ख् ग् घ् ड़् ह् विसर्ग कंठ और जीभ का निचला भाग कंठस्थ
2. इ ई च् छ् ज् झ् ञ् य् श तालु और जीभ तालव्य
3. ऋ ट् ठ् ड् ढ् ण् ड़् ढ़् र् ष् मूर्धा और जीभ मूर्धन्य
4. त् थ् द् ध् न् ल् स् दाँत और जीभ दंत्य
5. उ ऊ प् फ् ब् भ् म दोनों होंठ ओष्ठ्य
6. ए ऐ कंठ तालु और जीभ कंठतालव्य
7. ओ औ दाँत जीभ और होंठ कंठोष्ठ्य
8. व् दाँत जीभ और होंठ दंतोष्






शब्द-विचार
एक या अधिक वर्णों से बनी हुई स्वतंत्र सार्थक ध्वनि शब्द कहलाता है। जैसे- एक वर्ण से निर्मित शब्द-न (नहीं) व (और) अनेक वर्णों से निर्मित शब्द-कुत्ता, शेर,कमल, नयन, प्रासाद, सर्वव्यापी, परमात्मा।
शब्द-भेद
व्युत्पत्ति (बनावट) के आधार पर शब्द-भेद-
व्युत्पत्ति (बनावट) के आधार पर शब्द के निम्नलिखित तीन भेद हैं-
1. रूढ़
2. यौगिक
3. योगरूढ़


1. रूढ़
जो शब्द किन्हीं अन्य शब्दों के योग से न बने हों और किसी विशेष अर्थ को प्रकट करते हों तथा जिनके टुकड़ों का कोई अर्थ नहीं होता, वे रूढ़ कहलाते हैं। जैसे-कल, पर। इनमें क, ल, प, र का टुकड़े करने पर कुछ अर्थ नहीं हैं। अतः ये निरर्थक हैं।
2. यौगिक
जो शब्द कई सार्थक शब्दों के मेल से बने हों,वे यौगिक कहलाते हैं। जैसे-देवालय=देव+आलय, राजपुरुष=राज+पुरुष, हिमालय=हिम+आलय, देवदूत=देव+दूत आदि। ये सभी शब्द दो सार्थक शब्दों के मेल से बने हैं।
3. योगरूढ़
वे शब्द, जो यौगिक तो हैं, किन्तु सामान्य अर्थ को न प्रकट कर किसी विशेष अर्थ को प्रकट करते हैं, योगरूढ़ कहलाते हैं। जैसे-पंकज, दशानन आदि। पंकज=पंक+ज (कीचड़ में उत्पन्न होने वाला) सामान्य अर्थ में प्रचलित न होकर कमल के अर्थ में रूढ़ हो गया है। अतः पंकज शब्द योगरूढ़ है। इसी प्रकार दश (दस) आनन (मुख) वाला रावण के अर्थ में प्रसिद्ध है।









उत्पत्ति के आधार पर शब्द-भेद
उत्पत्ति के आधार पर शब्द के निम्नलिखित चार भेद हैं-

1. तत्सम- जो शब्द संस्कृत भाषा से हिन्दी में बिना किसी परिवर्तन के ले लिए गए हैं वे तत्सम कहलाते हैं। जैसे-अग्नि, क्षेत्र, वायु, रात्रि, सूर्य आदि।
2. तद्भव- जो शब्द रूप बदलने के बाद संस्कृत से हिन्दी में आए हैं वे तद्भव कहलाते हैं। जैसे-आग (अग्नि), खेत(क्षेत्र), रात (रात्रि), सूरज (सूर्य) आदि।
3. देशज- जो शब्द क्षेत्रीय प्रभाव के कारण परिस्थिति व आवश्यकतानुसार बनकर प्रचलित हो गए हैं वे देशज कहलाते हैं। जैसे-पगड़ी, गाड़ी, थैला, पेट, खटखटाना आदि।
4. विदेशी या विदेशज- विदेशी जातियों के संपर्क से उनकी भाषा के बहुत से शब्द हिन्दी में प्रयुक्त होने लगे हैं। ऐसे शब्द विदेशी अथवा विदेशज कहलाते हैं। जैसे-स्कूल, अनार, आम, कैंची,अचार, पुलिस, टेलीफोन, रिक्शा आदि। ऐसे कुछ विदेशी शब्दों की सूची नीचे दी जा रही है।
अंग्रेजी- कॉलेज, पैंसिल, रेडियो, टेलीविजन, डॉक्टर, लैटरबक्स, पैन, टिकट, मशीन, सिगरेट, साइकिल, बोतल आदि।
फारसी- अनार,चश्मा, जमींदार, दुकान, दरबार, नमक, नमूना, बीमार, बरफ, रूमाल, आदमी, चुगलखोर, गंदगी, चापलूसी आदि।
अरबी- औलाद, अमीर, कत्ल, कलम, कानून, खत, फकीर, रिश्वत, औरत, कैदी, मालिक, गरीब आदि।
तुर्की- कैंची, चाकू, तोप, बारूद, लाश, दारोगा, बहादुर आदि।
पुर्तगाली- अचार, आलपीन, कारतूस, गमला, चाबी, तिजोरी, तौलिया, फीता, साबुन, तंबाकू, कॉफी, कमीज आदि।
फ्रांसीसी- पुलिस, कार्टून, इंजीनियर, कर्फ्यू, बिगुल आदि।
चीनी- तूफान, लीची, चाय, पटाखा आदि।
यूनानी- टेलीफोन, टेलीग्राफ, ऐटम, डेल्टा आदि।
जापानी- रिक्शा आदि।
प्रयोग के आधार पर शब्द-भेद





प्रयोग के आधार पर शब्द के निम्नलिखित आठ भेद है-
1. संज्ञा
2. सर्वनाम
3. विशेषण
4. क्रिया
5. क्रिया-विशेषण
6. संबंधबोधक
7. समुच्चयबोधक
8. विस्मयादिबोधक

इन उपर्युक्त आठ प्रकार के शब्दों को भी विकार की दृष्टि से दो भागों में बाँटा जा सकता है-
1. विकारी
2. अविकारी
1. विकारी शब्द
जिन शब्दों का रूप-परिवर्तन होता रहता है वे विकारी शब्द कहलाते हैं। जैसे-कुत्ता, कुत्ते, कुत्तों, मैं मुझे,हमें अच्छा, अच्छे खाता है, खाती है, खाते हैं। इनमें संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण और क्रिया विकारी शब्द हैं।
2. अविकारी शब्द
जिन शब्दों के रूप में कभी कोई परिवर्तन नहीं होता है वे अविकारी शब्द कहलाते हैं। जैसे-यहाँ, किन्तु, नित्य, और, हे अरे आदि। इनमें क्रिया-विशेषण, संबंधबोधक, समुच्चयबोधक और विस्मयादिबोधक आदि हैं।



अर्थ की दृष्टि से शब्द-भेद
अर्थ की दृष्टि से शब्द के दो भेद हैं-
1. सार्थक
2. निरर्थक






1. सार्थक शब्द
जिन शब्दों का कुछ-न-कुछ अर्थ हो वे शब्द सार्थक शब्द कहलाते हैं। जैसे-रोटी, पानी, ममता, डंडा आदि।
2. निरर्थक शब्द
जिन शब्दों का कोई अर्थ नहीं होता है वे शब्द निरर्थक कहलाते हैं। जैसे-रोटी-वोटी, पानी-वानी, डंडा-वंडा इनमें वोटी, वानी, वंडा आदि निरर्थक शब्द हैं।
विशेष- निरर्थक शब्दों पर व्याकरण में कोई विचार नहीं किया जाता है।

अध्याय 4
पद-विचार
सार्थक वर्ण-समूह शब्द कहलाता है, पर जब इसका प्रयोग वाक्य में होता है तो वह स्वतंत्र नहीं रहता बल्कि व्याकरण के नियमों में बँध जाता है और प्रायः इसका रूप भी बदल जाता है। जब कोई शब्द वाक्य में प्रयुक्त होता है तो उसे शब्द न कहकर पद कहा जाता है।
हिन्दी में पद पाँच प्रकार के होते हैं-
1. संज्ञा
2. सर्वनाम
3. विशेषण
4. क्रिया
5. अव्यय
1. संज्ञा

किसी व्यक्ति, स्थान, वस्तु आदि तथा नाम के गुण, धर्म, स्वभाव का बोध कराने वाले शब्द संज्ञा कहलाते हैं। जैसे-श्याम, आम, मिठास, हाथी आदि।
संज्ञा के प्रकार- संज्ञा के तीन भेद हैं-
1. व्यक्तिवाचक संज्ञा।
2. जातिवाचक संज्ञा।
3. भाववाचक संज्ञा।




1. व्यक्तिवाचक संज्ञा
जिस संज्ञा शब्द से किसी विशेष, व्यक्ति, प्राणी, वस्तु अथवा स्थान का बोध हो उसे व्यक्तिवाचक संज्ञा कहते हैं। जैसे-जयप्रकाश नारायण, श्रीकृष्ण, रामायण, ताजमहल, कुतुबमीनार, लालकिला हिमालय आदि।
2. जातिवाचक संज्ञा
जिस संज्ञा शब्द से उसकी संपूर्ण जाति का बोध हो उसे जातिवाचक संज्ञा कहते हैं। जैसे-मनुष्य, नदी, नगर, पर्वत, पशु, पक्षी, लड़का, कुत्ता, गाय, घोड़ा, भैंस, बकरी, नारी, गाँव आदि।
3. भाववाचक संज्ञा
जिस संज्ञा शब्द से पदार्थों की अवस्था, गुण-दोष, धर्म आदि का बोध हो उसे भाववाचक संज्ञा कहते हैं। जैसे-बुढ़ापा, मिठास, बचपन, मोटापा, चढ़ाई, थकावट आदि।
विशेष वक्तव्य- कुछ विद्वान अंग्रेजी व्याकरण के प्रभाव के कारण संज्ञा शब्द के दो भेद और बतलाते हैं-
1. समुदायवाचक संज्ञा।
2. द्रव्यवाचक संज्ञा।
1. समुदायवाचक संज्ञा
जिन संज्ञा शब्दों से व्यक्तियों, वस्तुओं आदि के समूह का बोध हो उन्हें समुदायवाचक संज्ञा कहते हैं। जैसे-सभा, कक्षा, सेना, भीड़, पुस्तकालय दल आदि।
2. द्रव्यवाचक संज्ञा
जिन संज्ञा-शब्दों से किसी धातु, द्रव्य आदि पदार्थों का बोध हो उन्हें द्रव्यवाचक संज्ञा कहते हैं। जैसे-घी, तेल, सोना, चाँदी,पीतल, चावल, गेहूँ, कोयला, लोहा आदि।

इस प्रकार संज्ञा के पाँच भेद हो गए, किन्तु अनेक विद्वान समुदायवाचक और द्रव्यवाचक संज्ञाओं को जातिवाचक संज्ञा के अंतर्गत ही मानते हैं, और यही उचित भी प्रतीत होता है।









संज्ञा के विकारक तत्व

जिन तत्वों के आधार पर संज्ञा (संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण) का रूपांतर होता है वे विकारक तत्व कहलाते हैं।

वाक्य में शब्दों की स्थिति के आधार पर ही उनमें विकार आते हैं। यह विकार लिंग, वचन और कारक के कारण ही होता है। जैसे-लड़का शब्द के चारों रूप- 1.लड़का, 2.लड़के, 3.लड़कों, 4.लड़को-केवल वचन और कारकों के कारण बनते हैं।
लिंग- जिस चिह्न से यह बोध होता हो कि अमुक शब्द पुरुष जाति का है अथवा स्त्री जाति का वह लिंग कहलाता है।
शब्द के जिस रूप से किसी व्यक्ति, वस्तु आदि के पुरुष जाति अथवा स्त्री जाति के होने का ज्ञान हो उसे लिंग कहते हैं। जैसे-लड़का, लड़की, नर, नारी आदि। इनमें ‘लड़का’ और ‘नर’ पुल्लिंग तथा लड़की और ‘नारी’ स्त्रीलिंग हैं।

हिन्दी में लिंग के दो भेद हैं-
1. पुल्लिंग।
2. स्त्रीलिंग।

1. पुल्लिंग
जिन संज्ञा शब्दों से पुरुष जाति का बोध हो अथवा जो शब्द पुरुष जाति के अंतर्गत माने जाते हैं वे पुल्लिंग हैं। जैसे-कुत्ता, लड़का, पेड़, सिंह, बैल, घर आदि।

2. स्त्रीलिंग
जिन संज्ञा शब्दों से स्त्री जाति का बोध हो अथवा जो शब्द स्त्री जाति के अंतर्गत माने जाते हैं वे स्त्रीलिंग हैं। जैसे-गाय, घड़ी, लड़की, कुरसी, छड़ी, नारी आदि।

पुल्लिंग की पहचान
1. आ, आव, पा, पन न ये प्रत्यय जिन शब्दों के अंत में हों वे प्रायः पुल्लिंग होते हैं। जैसे- मोटा, चढ़ाव, बुढ़ापा, लड़कपन लेन-देन।
2. पर्वत, मास, वार और कुछ ग्रहों के नाम पुल्लिंग होते हैं जैसे-विंध्याचल, हिमालय, वैशाख, सूर्य, चंद्र, मंगल, बुध, राहु, केतु (ग्रह)।
3. पेड़ों के नाम पुल्लिंग होते हैं। जैसे-पीपल, नीम, आम, शीशम, सागौन, जामुन, बरगद आदि।
4. अनाजों के नाम पुल्लिंग होते हैं। जैसे-बाजरा, गेहूँ, चावल, चना, मटर, जौ, उड़द आदि।
5. द्रव पदार्थों के नाम पुल्लिंग होते हैं। जैसे-पानी, सोना, ताँबा, लोहा, घी, तेल आदि।
6. रत्नों के नाम पुल्लिंग होते हैं। जैसे-हीरा, पन्ना, मूँगा, मोती माणिक आदि।
7. देह के अवयवों के नाम पुल्लिंग होते हैं। जैसे-सिर, मस्तक, दाँत, मुख, कान, गला, हाथ, पाँव, होंठ, तालु, नख, रोम आदि।
8. जल, स्थान और भूमंडल के भागों के नाम पुल्लिंग होते हैं। जैसे-समुद्र, भारत, देश, नगर, द्वीप, आकाश, पाताल, घर, सरोवर आदि।
9. वर्णमाला के अनेक अक्षरों के नाम पुल्लिंग होते हैं। जैसे-अ,उ,ए,ओ,क,ख,ग,घ, च,छ,य,र,ल,व,श आदि।
स्त्रीलिंग की पहचान
1. जिन संज्ञा शब्दों के अंत में ख होते है, वे स्त्रीलिंग कहलाते हैं। जैसे-ईख, भूख, चोख, राख, कोख, लाख, देखरेख आदि।
2. जिन भाववाचक संज्ञाओं के अंत में ट, वट, या हट होता है, वे स्त्रीलिंग कहलाती हैं। जैसे-झंझट, आहट, चिकनाहट, बनावट, सजावट आदि।
3. अनुस्वारांत, ईकारांत, ऊकारांत, तकारांत, सकारांत संज्ञाएँ स्त्रीलिंग कहलाती है। जैसे-रोटी, टोपी, नदी, चिट्ठी, उदासी, रात, बात, छत, भीत, लू, बालू, दारू, सरसों, खड़ाऊँ, प्यास, वास, साँस आदि।
4. भाषा, बोली और लिपियों के नाम स्त्रीलिंग होते हैं। जैसे-हिन्दी, संस्कृत, देवनागरी, पहाड़ी, तेलुगु पंजाबी गुरुमुखी।
5. जिन शब्दों के अंत में इया आता है वे स्त्रीलिंग होते हैं। जैसे-कुटिया, खटिया, चिड़िया आदि।
6. नदियों के नाम स्त्रीलिंग होते हैं। जैसे-गंगा, यमुना, गोदावरी, सरस्वती आदि।
7. तारीखों और तिथियों के नाम स्त्रीलिंग होते हैं। जैसे-पहली, दूसरी, प्रतिपदा, पूर्णिमा आदि।
8. पृथ्वी ग्रह स्त्रीलिंग होते हैं।
9. नक्षत्रों के नाम स्त्रीलिंग होते हैं। जैसे-अश्विनी, भरणी, रोहिणी आदि।












वचन
परिभाषा-शब्द के जिस रूप से उसके एक अथवा अनेक होने का बोध हो उसे वचन कहते हैं।
हिन्दी में वचन दो होते हैं-
1. एकवचन
2. बहुवचन

एकवचन
शब्द के जिस रूप से एक ही वस्तु का बोध हो, उसे एकवचन कहते हैं। जैसे-लड़का, गाय, सिपाही, बच्चा, कपड़ा, माता, माला, पुस्तक, स्त्री, टोपी बंदर, मोर आदि।

बहुवचन
शब्द के जिस रूप से अनेकता का बोध हो उसे बहुवचन कहते हैं। जैसे-लड़के, गायें, कपड़े, टोपियाँ, मालाएँ, माताएँ, पुस्तकें, वधुएँ, गुरुजन, रोटियाँ, स्त्रियाँ, लताएँ, बेटे आदि।
























कारक
परिभाषा-संज्ञा या सर्वनाम के जिस रूप से उसका सीधा संबंध क्रिया के साथ ज्ञात हो वह कारक कहलाता है। जैसे-गीता ने दूध पीया। इस वाक्य में ‘गीता’ पीना क्रिया का कर्ता है और दूध उसका कर्म। अतः ‘गीता’ कर्ता कारक है और ‘दूध’ कर्म कारक।
कारक विभक्ति- संज्ञा अथवा सर्वनाम शब्दों के बाद ‘ने, को, से, के लिए’, आदि जो चिह्न लगते हैं वे चिह्न कारक विभक्ति कहलाते हैं।

हिन्दी में आठ कारक होते हैं। उन्हें विभक्ति चिह्नों सहित नीचे देखा जा सकता है-
कारक विभक्ति चिह्न (परसर्ग)
1. कर्ता ने
2. कर्म को
3. करण से, के साथ, के द्वारा
4. संप्रदान के लिए, को
5. अपादान से (पृथक)
6. संबंध का, के, की
7. अधिकरण में, पर
8. संबोधन हे ! हरे !
कारक चिह्न स्मरण करने के लिए इस पद की रचना की गई हैं-
कर्ता ने अरु कर्म को, करण रीति से जान।
संप्रदान को, के लिए, अपादान से मान।।
का, के, की, संबंध हैं, अधिकरणादिक में मान।
रे ! हे ! हो ! संबोधन, मित्र धरहु यह ध्यान।।
विशेष-कर्ता से अधिकरण तक विभक्ति चिह्न (परसर्ग) शब्दों के अंत में लगाए जाते हैं, किन्तु संबोधन कारक के चिह्न-हे, रे, आदि प्रायः शब्द से पूर्व लगाए जाते हैं।
1. कर्ता कारक
जिस रूप से क्रिया (कार्य) के करने वाले का बोध होता है वह ‘कर्ता’ कारक कहलाता है। इसका विभक्ति-चिह्न ‘ने’ है। इस ‘ने’ चिह्न का वर्तमानकाल और भविष्यकाल में प्रयोग नहीं होता है। इसका सकर्मक धातुओं के साथ भूतकाल में प्रयोग होता है। जैसे- 1.राम ने रावण को मारा। 2.लड़की स्कूल जाती है।

पहले वाक्य में क्रिया का कर्ता राम है। इसमें ‘ने’ कर्ता कारक का विभक्ति-चिह्न है। इस वाक्य में ‘मारा’ भूतकाल की क्रिया है। ‘ने’ का प्रयोग प्रायः भूतकाल में होता है। दूसरे वाक्य में वर्तमानकाल की क्रिया का कर्ता लड़की है। इसमें ‘ने’ विभक्ति का प्रयोग नहीं हुआ है।

विशेष- (1) भूतकाल में अकर्मक क्रिया के कर्ता के साथ भी ने परसर्ग (विभक्ति चिह्न) नहीं लगता है। जैसे-वह हँसा।
(2) वर्तमानकाल व भविष्यतकाल की सकर्मक क्रिया के कर्ता के साथ ने परसर्ग का प्रयोग नहीं होता है। जैसे-वह फल खाता है। वह फल खाएगा।
(3) कभी-कभी कर्ता के साथ ‘को’ तथा ‘स’ का प्रयोग भी किया जाता है। जैसे-
(अ) बालक को सो जाना चाहिए। (आ) सीता से पुस्तक पढ़ी गई।
(इ) रोगी से चला भी नहीं जाता। (ई) उससे शब्द लिखा नहीं गया।
2. कर्म कारक
क्रिया के कार्य का फल जिस पर पड़ता है, वह कर्म कारक कहलाता है। इसका विभक्ति-चिह्न ‘को’ है। यह चिह्न भी बहुत-से स्थानों पर नहीं लगता। जैसे- 1. मोहन ने साँप को मारा। 2. लड़की ने पत्र लिखा। पहले वाक्य में ‘मारने’ की क्रिया का फल साँप पर पड़ा है। अतः साँप कर्म कारक है। इसके साथ परसर्ग ‘को’ लगा है।
दूसरे वाक्य में ‘लिखने’ की क्रिया का फल पत्र पर पड़ा। अतः पत्र कर्म कारक है। इसमें कर्म कारक का विभक्ति चिह्न ‘को’ नहीं लगा।
3. करण कारक
संज्ञा आदि शब्दों के जिस रूप से क्रिया के करने के साधन का बोध हो अर्थात् जिसकी सहायता से कार्य संपन्न हो वह करण कारक कहलाता है। इसके विभक्ति-चिह्न ‘से’ के ‘द्वारा’ है। जैसे- 1.अर्जुन ने जयद्रथ को बाण से मारा। 2.बालक गेंद से खेल रहे है।
पहले वाक्य में कर्ता अर्जुन ने मारने का कार्य ‘बाण’ से किया। अतः ‘बाण से’ करण कारक है। दूसरे वाक्य में कर्ता बालक खेलने का कार्य ‘गेंद से’ कर रहे हैं। अतः ‘गेंद से’ करण कारक है।





4. संप्रदान कारक
संप्रदान का अर्थ है-देना। अर्थात कर्ता जिसके लिए कुछ कार्य करता है, अथवा जिसे कुछ देता है उसे व्यक्त करने वाले रूप को संप्रदान कारक कहते हैं। इसके विभक्ति चिह्न ‘के लिए’ को हैं।
1.स्वास्थ्य के लिए सूर्य को नमस्कार करो। 2.गुरुजी को फल दो।
इन दो वाक्यों में ‘स्वास्थ्य के लिए’ और ‘गुरुजी को’ संप्रदान कारक हैं।
5. अपादान कारक
संज्ञा के जिस रूप से एक वस्तु का दूसरी से अलग होना पाया जाए वह अपादान कारक कहलाता है। इसका विभक्ति-चिह्न ‘से’ है। जैसे- 1.बच्चा छत से गिर पड़ा। 2.संगीता घोड़े से गिर पड़ी।
इन दोनों वाक्यों में ‘छत से’ और घोड़े ‘से’ गिरने में अलग होना प्रकट होता है। अतः घोड़े से और छत से अपादान कारक हैं।
6. संबंध कारक
शब्द के जिस रूप से किसी एक वस्तु का दूसरी वस्तु से संबंध प्रकट हो वह संबंध कारक कहलाता है। इसका विभक्ति चिह्न ‘का’, ‘के’, ‘की’, ‘रा’, ‘रे’, ‘री’ है। जैसे- 1.यह राधेश्याम का बेटा है। 2.यह कमला की गाय है।
इन दोनों वाक्यों में ‘राधेश्याम का बेटे’ से और ‘कमला का’ गाय से संबंध प्रकट हो रहा है। अतः यहाँ संबंध कारक है।
7. अधिकरण कारक
शब्द के जिस रूप से क्रिया के आधार का बोध होता है उसे अधिकरण कारक कहते हैं। इसके विभक्ति-चिह्न ‘में’, ‘पर’ हैं। जैसे- 1.भँवरा फूलों पर मँडरा रहा है। 2.कमरे में टी.वी. रखा है।
इन दोनों वाक्यों में ‘फूलों पर’ और ‘कमरे में’ अधिकरण कारक है।
8. संबोधन कारक
जिससे किसी को बुलाने अथवा सचेत करने का भाव प्रकट हो उसे संबोधन कारक कहते है और संबोधन चिह्न (!) लगाया जाता है। जैसे- 1.अरे भैया ! क्यों रो रहे हो ? 2.हे गोपाल ! यहाँ आओ।
इन वाक्यों में ‘अरे भैया’ और ‘हे गोपाल’ ! संबोधन कारक है।








सर्वनाम
सर्वनाम-संज्ञा के स्थान पर प्रयुक्त होने वाले शब्द को सर्वनाम कहते है। संज्ञा की पुनरुक्ति को दूर करने के लिए ही सर्वनाम का प्रयोग किया जाता है। जैसे-मैं, हम, तू, तुम, वह, यह, आप, कौन, कोई, जो आदि।
सर्वनाम के भेद- सर्वनाम के छह भेद हैं-
1. पुरुषवाचक सर्वनाम।
2. निश्चयवाचक सर्वनाम।
3. अनिश्चयवाचक सर्वनाम।
4. संबंधवाचक सर्वनाम।
5. प्रश्नवाचक सर्वनाम।
6. निजवाचक सर्वनाम।

1. पुरुषवाचक सर्वनाम
जिस सर्वनाम का प्रयोग वक्ता या लेखक स्वयं अपने लिए अथवा श्रोता या पाठक के लिए अथवा किसी अन्य के लिए करता है वह पुरुषवाचक सर्वनाम कहलाता है। पुरुषवाचक सर्वनाम तीन प्रकार के होते हैं-
(1) उत्तम पुरुषवाचक सर्वनाम- जिस सर्वनाम का प्रयोग बोलने वाला अपने लिए करे, उसे उत्तम पुरुषवाचक सर्वनाम कहते हैं। जैसे-मैं, हम, मुझे, हमारा आदि।
(2) मध्यम पुरुषवाचक सर्वनाम- जिस सर्वनाम का प्रयोग बोलने वाला सुनने वाले के लिए करे, उसे मध्यम पुरुषवाचक सर्वनाम कहते हैं। जैसे-तू, तुम,तुझे, तुम्हारा आदि।
(3) अन्य पुरुषवाचक सर्वनाम- जिस सर्वनाम का प्रयोग बोलने वाला सुनने वाले के अतिरिक्त किसी अन्य पुरुष के लिए करे उसे अन्य पुरुषवाचक सर्वनाम कहते हैं। जैसे-वह, वे, उसने, यह, ये, इसने, आदि।



2. निश्चयवाचक सर्वनाम
जो सर्वनाम किसी व्यक्ति वस्तु आदि की ओर निश्चयपूर्वक संकेत करें वे निश्चयवाचक सर्वनाम कहलाते हैं। इनमें ‘यह’, ‘वह’, ‘वे’ सर्वनाम शब्द किसी विशेष व्यक्ति आदि का निश्चयपूर्वक बोध करा रहे हैं, अतः ये निश्चयवाचक सर्वनाम है।

3. अनिश्चयवाचक सर्वनाम
जिस सर्वनाम शब्द के द्वारा किसी निश्चित व्यक्ति अथवा वस्तु का बोध न हो वे अनिश्चयवाचक सर्वनाम कहलाते हैं। इनमें ‘कोई’ और ‘कुछ’ सर्वनाम शब्दों से किसी विशेष व्यक्ति अथवा वस्तु का निश्चय नहीं हो रहा है। अतः ऐसे शब्द अनिश्चयवाचक सर्वनाम कहलाते हैं।

4. संबंधवाचक सर्वनाम
परस्पर एक-दूसरी बात का संबंध बतलाने के लिए जिन सर्वनामों का प्रयोग होता है उन्हें संबंधवाचक सर्वनाम कहते हैं। इनमें ‘जो’, ‘वह’, ‘जिसकी’, ‘उसकी’, ‘जैसा’, ‘वैसा’-ये दो-दो शब्द परस्पर संबंध का बोध करा रहे हैं। ऐसे शब्द संबंधवाचक सर्वनाम कहलाते हैं।

5. प्रश्नवाचक सर्वनाम
जो सर्वनाम संज्ञा शब्दों के स्थान पर तो आते ही है, किन्तु वाक्य को प्रश्नवाचक भी बनाते हैं वे प्रश्नवाचक सर्वनाम कहलाते हैं। जैसे-क्या, कौन आदि। इनमें ‘क्या’ और ‘कौन’ शब्द प्रश्नवाचक सर्वनाम हैं, क्योंकि इन सर्वनामों के द्वारा वाक्य प्रश्नवाचक बन जाते हैं।

6. निजवाचक सर्वनाम
जहाँ अपने लिए ‘आप’ शब्द ‘अपना’ शब्द अथवा ‘अपने’ ‘आप’ शब्द का प्रयोग हो वहाँ निजवाचक सर्वनाम होता है। इनमें ‘अपना’ और ‘आप’ शब्द उत्तम, पुरुष मध्यम पुरुष और अन्य पुरुष के (स्वयं का) अपने आप का बोध करा रहे हैं। ऐसे शब्द निजवाचक सर्वनाम कहलाते हैं।
विशेष-जहाँ केवल ‘आप’ शब्द का प्रयोग श्रोता के लिए हो वहाँ यह आदर-सूचक मध्यम पुरुष होता है और जहाँ ‘आप’ शब्द का प्रयोग अपने लिए हो वहाँ निजवाचक होता है।
सर्वनाम शब्दों के विशेष प्रयोग
(1) आप, वे, ये, हम, तुम शब्द बहुवचन के रूप में हैं, किन्तु आदर प्रकट करने के लिए इनका प्रयोग एक व्यक्ति के लिए भी होता है।
(2) ‘आप’ शब्द स्वयं के अर्थ में भी प्रयुक्त हो जाता है। जैसे-मैं यह कार्य आप ही कर लूँगा।








विशेषण
संज्ञा अथवा सर्वनाम शब्दों की विशेषता (गुण, दोष, संख्या, परिमाण आदि) बताने वाले शब्द ‘विशेषण’ कहलाते हैं। जैसे-बड़ा, काला, लंबा, दयालु, भारी, सुन्दर, कायर, टेढ़ा-मेढ़ा, एक, दो आदि।
विशेष्य- जिस संज्ञा अथवा सर्वनाम शब्द की विशेषता बताई जाए वह विशेष्य कहलाता है। यथा- गीता सुन्दर है। इसमें ‘सुन्दर’ विशेषण है और ‘गीता’ विशेष्य है। विशेषण शब्द विशेष्य से पूर्व भी आते हैं और उसके बाद भी।
पूर्व में, जैसे- (1) थोड़ा-सा जल लाओ। (2) एक मीटर कपड़ा ले आना।
बाद में, जैसे- (1) यह रास्ता लंबा है। (2) खीरा कड़वा है।
विशेषण के भेद- विशेषण के चार भेद हैं-
1. गुणवाचक।
2. परिमाणवाचक।
3. संख्यावाचक।
4. संकेतवाचक अथवा सार्वनामिक।

1. गुणवाचक विशेषण
जिन विशेषण शब्दों से संज्ञा अथवा सर्वनाम शब्दों के गुण-दोष का बोध हो वे गुणवाचक विशेषण कहलाते हैं। जैसे-
(1) भाव- अच्छा, बुरा, कायर, वीर, डरपोक आदि।
(2) रंग- लाल, हरा, पीला, सफेद, काला, चमकीला, फीका आदि।
(3) दशा- पतला, मोटा, सूखा, गाढ़ा, पिघला, भारी, गीला, गरीब, अमीर, रोगी, स्वस्थ, पालतू आदि।
(4) आकार- गोल, सुडौल, नुकीला, समान, पोला आदि।
(5) समय- अगला, पिछला, दोपहर, संध्या, सवेरा आदि।
(6) स्थान- भीतरी, बाहरी, पंजाबी, जापानी, पुराना, ताजा, आगामी आदि।
(7) गुण- भला, बुरा, सुन्दर, मीठा, खट्टा, दानी,सच, झूठ, सीधा आदि।
(8) दिशा- उत्तरी, दक्षिणी, पूर्वी, पश्चिमी आदि।




2. परिमाणवाचक विशेषण
जिन विशेषण शब्दों से संज्ञा या सर्वनाम की मात्रा अथवा नाप-तोल का ज्ञान हो वे परिमाणवाचक विशेषण कहलाते हैं।
परिमाणवाचक विशेषण के दो उपभेद है-
(1) निश्चित परिमाणवाचक विशेषण- जिन विशेषण शब्दों से वस्तु की निश्चित मात्रा का ज्ञान हो। जैसे-
(क) मेरे सूट में साढ़े तीन मीटर कपड़ा लगेगा।
(ख) दस किलो चीनी ले आओ।
(ग) दो लिटर दूध गरम करो।
(2) अनिश्चित परिमाणवाचक विशेषण- जिन विशेषण शब्दों से वस्तु की अनिश्चित मात्रा का ज्ञान हो। जैसे-
(क) थोड़ी-सी नमकीन वस्तु ले आओ।
(ख) कुछ आम दे दो।
(ग) थोड़ा-सा दूध गरम कर दो।


3. संख्यावाचक विशेषण
जिन विशेषण शब्दों से संज्ञा या सर्वनाम की संख्या का बोध हो वे संख्यावाचक विशेषण कहलाते हैं। जैसे-एक, दो, द्वितीय, दुगुना, चौगुना, पाँचों आदि।
संख्यावाचक विशेषण के दो उपभेद हैं-
(1) निश्चित संख्यावाचक विशेषण- जिन विशेषण शब्दों से निश्चित संख्या का बोध हो। जैसे-दो पुस्तकें मेरे लिए ले आना।
निश्चित संख्यावाचक के निम्नलिखित चार भेद हैं-
(क) गणवाचक- जिन शब्दों के द्वारा गिनती का बोध हो। जैसे-
(1) एक लड़का स्कूल जा रहा है।
(2) पच्चीस रुपये दीजिए।
(3) कल मेरे यहाँ दो मित्र आएँगे।
(4) चार आम लाओ।
(ख) क्रमवाचक- जिन शब्दों के द्वारा संख्या के क्रम का बोध हो। जैसे-
(1) पहला लड़का यहाँ आए।
(2) दूसरा लड़का वहाँ बैठे।
(3) राम कक्षा में प्रथम रहा।
(ग) आवृत्तिवाचक- जिन शब्दों के द्वारा केवल आवृत्ति का बोध हो। जैसे-
(1) मोहन तुमसे चौगुना काम करता है।
(2) गोपाल तुमसे दुगुना मोटा है।
(घ) समुदायवाचक- जिन शब्दों के द्वारा केवल सामूहिक संख्या का बोध हो। जैसे-
(1) तुम तीनों को जाना पड़ेगा।
(2) यहाँ से चारों चले जाओ।
(2) अनिश्चित संख्यावाचक विशेषण- जिन विशेषण शब्दों से निश्चित संख्या का बोध न हो। जैसे-कुछ बच्चे पार्क में खेल रहे हैं।

4. संकेतवाचक (निर्देशक) विशेषण
जो सर्वनाम संकेत द्वारा संज्ञा या सर्वनाम की विशेषता बतलाते हैं वे संकेतवाचक विशेषण कहलाते हैं।
विशेष-क्योंकि संकेतवाचक विशेषण सर्वनाम शब्दों से बनते हैं, अतः ये सार्वनामिक विशेषण कहलाते हैं। इन्हें निर्देशक भी कहते हैं।
(1) परिमाणवाचक विशेषण और संख्यावाचक विशेषण में अंतर- जिन वस्तुओं की नाप-तोल की जा सके उनके वाचक शब्द परिमाणवाचक विशेषण कहलाते हैं। जैसे-‘कुछ दूध लाओ’। इसमें ‘कुछ’ शब्द तोल के लिए आया है। इसलिए यह परिमाणवाचक विशेषण है। 2.जिन वस्तुओं की गिनती की जा सके उनके वाचक शब्द संख्यावाचक विशेषण कहलाते हैं। जैसे-कुछ बच्चे इधर आओ। यहाँ पर ‘कुछ’ बच्चों की गिनती के लिए आया है। इसलिए यह संख्यावाचक विशेषण है। परिमाणवाचक विशेषणों के बाद द्रव्य अथवा पदार्थवाचक संज्ञाएँ आएँगी जबकि संख्यावाचक विशेषणों के बाद जातिवाचक संज्ञाएँ आती हैं।
(2) सर्वनाम और सार्वनामिक विशेषण में अंतर- जिस शब्द का प्रयोग संज्ञा शब्द के स्थान पर हो उसे सर्वनाम कहते हैं। जैसे-वह मुंबई गया। इस वाक्य में वह सर्वनाम है। जिस शब्द का प्रयोग संज्ञा से पूर्व अथवा बाद में विशेषण के रूप में किया गया हो उसे सार्वनामिक विशेषण कहते हैं। जैसे-वह रथ आ रहा है। इसमें वह शब्द रथ का विशेषण है। अतः यह सार्वनामिक विशेषण है।






विशेषण की अवस्थाएँ
विशेषण शब्द किसी संज्ञा या सर्वनाम की विशेषता बतलाते हैं। विशेषता बताई जाने वाली वस्तुओं के गुण-दोष कम-ज्यादा होते हैं। गुण-दोषों के इस कम-ज्यादा होने को तुलनात्मक ढंग से ही जाना जा सकता है। तुलना की दृष्टि से विशेषणों की निम्नलिखित तीन अवस्थाएँ होती हैं-
(1) मूलावस्था
(2) उत्तरावस्था
(3) उत्तमावस्था
(1) मूलावस्था
मूलावस्था में विशेषण का तुलनात्मक रूप नहीं होता है। वह केवल सामान्य विशेषता ही प्रकट करता है। जैसे- 1.सावित्री सुंदर लड़की है। 2.सुरेश अच्छा लड़का है। 3.सूर्य तेजस्वी है।
(2) उत्तरावस्था
जब दो व्यक्तियों या वस्तुओं के गुण-दोषों की तुलना की जाती है तब विशेषण उत्तरावस्था में प्रयुक्त होता है। जैसे- 1.रवीन्द्र चेतन से अधिक बुद्धिमान है। 2.सविता रमा की अपेक्षा अधिक सुन्दर है।
(3) उत्तमावस्था
उत्तमावस्था में दो से अधिक व्यक्तियों एवं वस्तुओं की तुलना करके किसी एक को सबसे अधिक अथवा सबसे कम बताया गया है। जैसे- 1.पंजाब में अधिकतम अन्न होता है। 2.संदीप निकृष्टतम बालक है।
विशेष-केवल गुणवाचक एवं अनिश्चित संख्यावाचक तथा निश्चित परिमाणवाचक विशेषणों की ही ये तुलनात्मक अवस्थाएँ होती हैं,

क्रिया
क्रिया- जिस शब्द अथवा शब्द-समूह के द्वारा किसी कार्य के होने अथवा करने का बोध हो उसे क्रिया कहते हैं। जैसे-
(1) गीता नाच रही है।
(2) बच्चा दूध पी रहा है।
(3) राकेश कॉलेज जा रहा है।
(4) गौरव बुद्धिमान है।
(5) शिवाजी बहुत वीर थे।
इनमें ‘नाच रही है’, ‘पी रहा है’, ‘जा रहा है’ शब्द कार्य-व्यापार का बोध करा रहे हैं। जबकि ‘है’, ‘थे’ शब्द होने का। इन सभी से किसी कार्य के करने अथवा होने का बोध हो रहा है। अतः ये क्रियाएँ हैं।
धातु
क्रिया का मूल रूप धातु कहलाता है। जैसे-लिख, पढ़, जा, खा, गा, रो, पा आदि। इन्हीं धातुओं से लिखता, पढ़ता, आदि क्रियाएँ बनती हैं।
क्रिया के भेद- क्रिया के दो भेद हैं-
(1) अकर्मक क्रिया।
(2) सकर्मक क्रिया।
1. अकर्मक क्रिया
जिन क्रियाओं का फल सीधा कर्ता पर ही पड़े वे अकर्मक क्रिया कहलाती हैं। ऐसी अकर्मक क्रियाओं को कर्म की आवश्यकता नहीं होती। अकर्मक क्रियाओं के अन्य उदाहरण हैं-
(1) गौरव रोता है।
(2) साँप रेंगता है।
(3) रेलगाड़ी चलती है।
कुछ अकर्मक क्रियाएँ- लजाना, होना, बढ़ना, सोना, खेलना, अकड़ना, डरना, बैठना, हँसना, उगना, जीना, दौड़ना, रोना, ठहरना, चमकना, डोलना, मरना, घटना, फाँदना, जागना, बरसना, उछलना, कूदना आदि।
2. सकर्मक क्रिया
जिन क्रियाओं का फल (कर्ता को छोड़कर) कर्म पर पड़ता है वे सकर्मक क्रिया कहलाती हैं। इन क्रियाओं में कर्म का होना आवश्यक हैं, सकर्मक क्रियाओं के अन्य उदाहरण हैं-
(1) मैं लेख लिखता हूँ।
(2) रमेश मिठाई खाता है।
(3) सविता फल लाती है।
(4) भँवरा फूलों का रस पीता है।
3.द्विकर्मक क्रिया- जिन क्रियाओं के दो कर्म होते हैं, वे द्विकर्मक क्रियाएँ कहलाती हैं। द्विकर्मक क्रियाओं के उदाहरण हैं-
(1) मैंने श्याम को पुस्तक दी।
(2) सीता ने राधा को रुपये दिए।
ऊपर के वाक्यों में ‘देना’ क्रिया के दो कर्म हैं। अतः देना द्विकर्मक क्रिया हैं।
प्रयोग की दृष्टि से क्रिया के भेद
प्रयोग की दृष्टि से क्रिया के निम्नलिखित पाँच भेद हैं-
1.सामान्य क्रिया- जहाँ केवल एक क्रिया का प्रयोग होता है वह सामान्य क्रिया कहलाती है। जैसे-
1. आप आए।
2.वह नहाया आदि।
2.संयुक्त क्रिया- जहाँ दो अथवा अधिक क्रियाओं का साथ-साथ प्रयोग हो वे संयुक्त क्रिया कहलाती हैं। जैसे-
1.सविता महाभारत पढ़ने लगी।
2.वह खा चुका।
3.नामधातु क्रिया- संज्ञा, सर्वनाम अथवा विशेषण शब्दों से बने क्रियापद नामधातु क्रिया कहलाते हैं। जैसे-हथियाना, शरमाना, अपनाना, लजाना, चिकनाना, झुठलाना आदि।
4.प्रेरणार्थक क्रिया- जिस क्रिया से पता चले कि कर्ता स्वयं कार्य को न करके किसी अन्य को उस कार्य को करने की प्रेरणा देता है वह प्रेरणार्थक क्रिया कहलाती है। ऐसी क्रियाओं के दो कर्ता होते हैं- (1) प्रेरक कर्ता- प्रेरणा प्रदान करने वाला। (2) प्रेरित कर्ता-प्रेरणा लेने वाला। जैसे-श्यामा राधा से पत्र लिखवाती है। इसमें वास्तव में पत्र तो राधा लिखती है, किन्तु उसको लिखने की प्रेरणा देती है श्यामा। अतः ‘लिखवाना’ क्रिया प्रेरणार्थक क्रिया है। इस वाक्य में श्यामा प्रेरक कर्ता है और राधा प्रेरित कर्ता।
5.पूर्वकालिक क्रिया- किसी क्रिया से पूर्व यदि कोई दूसरी क्रिया प्रयुक्त हो तो वह पूर्वकालिक क्रिया कहलाती है। जैसे- मैं अभी सोकर उठा हूँ। इसमें ‘उठा हूँ’ क्रिया से पूर्व ‘सोकर’ क्रिया का प्रयोग हुआ है। अतः ‘सोकर’ पूर्वकालिक क्रिया है।
विशेष- पूर्वकालिक क्रिया या तो क्रिया के सामान्य रूप में प्रयुक्त होती है अथवा धातु के अंत में ‘कर’ अथवा ‘करके’ लगा देने से पूर्वकालिक क्रिया बन जाती है। जैसे-
(1) बच्चा दूध पीते ही सो गया।
(2) लड़कियाँ पुस्तकें पढ़कर जाएँगी।
अपूर्ण क्रिया
कई बार वाक्य में क्रिया के होते हुए भी उसका अर्थ स्पष्ट नहीं हो पाता। ऐसी क्रियाएँ अपूर्ण क्रिया कहलाती हैं। जैसे-गाँधीजी थे। तुम हो। ये क्रियाएँ अपूर्ण क्रियाएँ है। अब इन्हीं वाक्यों को फिर से पढ़िए-
गांधीजी राष्ट्रपिता थे। तुम बुद्धिमान हो।
इन वाक्यों में क्रमशः ‘राष्ट्रपिता’ और ‘बुद्धिमान’ शब्दों के प्रयोग से स्पष्टता आ गई। ये सभी शब्द ‘पूरक’ हैं।
अपूर्ण क्रिया के अर्थ को पूरा करने के लिए जिन शब्दों का प्रयोग किया जाता है उन्हें पूरक कहते हैं।
अध्याय 11
काल
काल
क्रिया के जिस रूप से कार्य संपन्न होने का समय (काल) ज्ञात हो वह काल कहलाता है। काल के निम्नलिखित तीन भेद हैं-
1. भूतकाल।
2. वर्तमानकाल।
3. भविष्यकाल।
1. भूतकाल
क्रिया के जिस रूप से बीते हुए समय (अतीत) में कार्य संपन्न होने का बोध हो वह भूतकाल कहलाता है। जैसे-
(1) बच्चा गया।
(2) बच्चा गया है।
(3) बच्चा जा चुका था।
ये सब भूतकाल की क्रियाएँ हैं, क्योंकि ‘गया’, ‘गया है’, ‘जा चुका था’, क्रियाएँ भूतकाल का बोध कराती है।
भूतकाल के निम्नलिखित छह भेद हैं-
1. सामान्य भूत।
2. आसन्न भूत।
3. अपूर्ण भूत।
4. पूर्ण भूत।
5. संदिग्ध भूत।
6. हेतुहेतुमद भूत।
1.सामान्य भूत- क्रिया के जिस रूप से बीते हुए समय में कार्य के होने का बोध हो किन्तु ठीक समय का ज्ञान न हो, वहाँ सामान्य भूत होता है। जैसे-
(1) बच्चा गया।
(2) श्याम ने पत्र लिखा।
(3) कमल आया।
2.आसन्न भूत- क्रिया के जिस रूप से अभी-अभी निकट भूतकाल में क्रिया का होना प्रकट हो, वहाँ आसन्न भूत होता है। जैसे-
(1) बच्चा आया है।
(2) श्यान ने पत्र लिखा है।
(3) कमल गया है।
3.अपूर्ण भूत- क्रिया के जिस रूप से कार्य का होना बीते समय में प्रकट हो, पर पूरा होना प्रकट न हो वहाँ अपूर्ण भूत होता है। जैसे-
(1) बच्चा आ रहा था।
(2) श्याम पत्र लिख रहा था।
(3) कमल जा रहा था।
4.पूर्ण भूत- क्रिया के जिस रूप से यह ज्ञात हो कि कार्य समाप्त हुए बहुत समय बीत चुका है उसे पूर्ण भूत कहते हैं। जैसे-
(1) श्याम ने पत्र लिखा था।
(2) बच्चा आया था।
(3) कमल गया था।
5.संदिग्ध भूत- क्रिया के जिस रूप से भूतकाल का बोध तो हो किन्तु कार्य के होने में संदेह हो वहाँ संदिग्ध भूत होता है। जैसे-
(1) बच्चा आया होगा।
(2) श्याम ने पत्र लिखा होगा।
(3) कमल गया होगा।
6.हेतुहेतुमद भूत- क्रिया के जिस रूप से बीते समय में एक क्रिया के होने पर दूसरी क्रिया का होना आश्रित हो अथवा एक क्रिया के न होने पर दूसरी क्रिया का न होना आश्रित हो वहाँ हेतुहेतुमद भूत होता है। जैसे-
(1) यदि श्याम ने पत्र लिखा होता तो मैं अवश्य आता।
(2) यदि वर्षा होती तो फसल अच्छी होती।
2. वर्तमान काल
क्रिया के जिस रूप से कार्य का वर्तमान काल में होना पाया जाए उसे वर्तमान काल कहते हैं। जैसे-
(1) मुनि माला फेरता है।
(2) श्याम पत्र लिखता होगा।
इन सब में वर्तमान काल की क्रियाएँ हैं, क्योंकि ‘फेरता है’, ‘लिखता होगा’, क्रियाएँ वर्तमान काल का बोध कराती हैं।
इसके निम्नलिखित तीन भेद हैं-
(1) सामान्य वर्तमान।
(2) अपूर्ण वर्तमान।
(3) संदिग्ध वर्तमान।
1.सामान्य वर्तमान- क्रिया के जिस रूप से यह बोध हो कि कार्य वर्तमान काल में सामान्य रूप से होता है वहाँ सामान्य वर्तमान होता है। जैसे-
(1) बच्चा रोता है।
(2) श्याम पत्र लिखता है।
(3) कमल आता है।
2.अपूर्ण वर्तमान- क्रिया के जिस रूप से यह बोध हो कि कार्य अभी चल ही रहा है, समाप्त नहीं हुआ है वहाँ अपूर्ण वर्तमान होता है। जैसे-
(1) बच्चा रो रहा है।
(2) श्याम पत्र लिख रहा है।
(3) कमल आ रहा है।
3.संदिग्ध वर्तमान- क्रिया के जिस रूप से वर्तमान में कार्य के होने में संदेह का बोध हो वहाँ संदिग्ध वर्तमान होता है। जैसे-
(1) अब बच्चा रोता होगा।
(2) श्याम इस समय पत्र लिखता होगा।
3. भविष्यत काल
क्रिया के जिस रूप से यह ज्ञात हो कि कार्य भविष्य में होगा वह भविष्यत काल कहलाता है। जैसे- (1) श्याम पत्र लिखेगा। (2) शायद आज संध्या को वह आए।
इन दोनों में भविष्यत काल की क्रियाएँ हैं, क्योंकि लिखेगा और आए क्रियाएँ भविष्यत काल का बोध कराती हैं।
इसके निम्नलिखित दो भेद हैं-
1. सामान्य भविष्यत।
2. संभाव्य भविष्यत।
1.सामान्य भविष्यत- क्रिया के जिस रूप से कार्य के भविष्य में होने का बोध हो उसे सामान्य भविष्यत कहते हैं। जैसे-
(1) श्याम पत्र लिखेगा।
(2) हम घूमने जाएँगे।
2.संभाव्य भविष्यत- क्रिया के जिस रूप से कार्य के भविष्य में होने की संभावना का बोध हो वहाँ संभाव्य भविष्यत होता है जैसे-
(1) शायद आज वह आए।
(2) संभव है श्याम पत्र लिखे।
(3) कदाचित संध्या तक पानी पड़े।

वाच्य
वाच्य-क्रिया के जिस रूप से यह ज्ञात हो कि वाक्य में क्रिया द्वारा संपादित विधान का विषय कर्ता है, कर्म है, अथवा भाव है, उसे वाच्य कहते हैं।
वाच्य के तीन प्रकार हैं-
1. कर्तृवाच्य।
2. कर्मवाच्य।
3. भाववाच्य।
1.कर्तृवाच्य- क्रिया के जिस रूप से वाक्य के उद्देश्य (क्रिया के कर्ता) का बोध हो, वह कर्तृवाच्य कहलाता है। इसमें लिंग एवं वचन प्रायः कर्ता के अनुसार होते हैं। जैसे-
1.बच्चा खेलता है।
2.घोड़ा भागता है।
इन वाक्यों में ‘बच्चा’, ‘घोड़ा’ कर्ता हैं तथा वाक्यों में कर्ता की ही प्रधानता है। अतः ‘खेलता है’, ‘भागता है’ ये कर्तृवाच्य हैं।
2.कर्मवाच्य- क्रिया के जिस रूप से वाक्य का उद्देश्य ‘कर्म’ प्रधान हो उसे कर्मवाच्य कहते हैं। जैसे-
1.भारत-पाक युद्ध में सहस्रों सैनिक मारे गए।
2.छात्रों द्वारा नाटक प्रस्तुत किया जा रहा है।
3.पुस्तक मेरे द्वारा पढ़ी गई।
4.बच्चों के द्वारा निबंध पढ़े गए।
इन वाक्यों में क्रियाओं में ‘कर्म’ की प्रधानता दर्शाई गई है। उनकी रूप-रचना भी कर्म के लिंग, वचन और पुरुष के अनुसार हुई है। क्रिया के ऐसे रूप ‘कर्मवाच्य’ कहलाते हैं।
3.भाववाच्य-क्रिया के जिस रूप से वाक्य का उद्देश्य केवल भाव (क्रिया का अर्थ) ही जाना जाए वहाँ भाववाच्य होता है। इसमें कर्ता या कर्म की प्रधानता नहीं होती है। इसमें मुख्यतः अकर्मक क्रिया का ही प्रयोग होता है और साथ ही प्रायः निषेधार्थक वाक्य ही भाववाच्य में प्रयुक्त होते हैं। इसमें क्रिया सदैव पुल्लिंग, अन्य पुरुष के एक वचन की होती है।
प्रयोग
प्रयोग तीन प्रकार के होते हैं-
1. कर्तरि प्रयोग।
2. कर्मणि प्रयोग।
3. भावे प्रयोग।
1.कर्तरि प्रयोग- जब कर्ता के लिंग, वचन और पुरुष के अनुरूप क्रिया हो तो वह ‘कर्तरि प्रयोग’ कहलाता है। जैसे-
1.लड़का पत्र लिखता है।
2.लड़कियाँ पत्र लिखती है।
इन वाक्यों में ‘लड़का’ एकवचन, पुल्लिंग और अन्य पुरुष है और उसके साथ क्रिया भी ‘लिखता है’ एकवचन, पुल्लिंग और अन्य पुरुष है। इसी तरह ‘लड़कियाँ पत्र लिखती हैं’ दूसरे वाक्य में कर्ता बहुवचन, स्त्रीलिंग और अन्य पुरुष है तथा उसकी क्रिया भी ‘लिखती हैं’ बहुवचन स्त्रीलिंग और अन्य पुरुष है।
2.कर्मणि प्रयोग- जब क्रिया कर्म के लिंग, वचन और पुरुष के अनुरूप हो तो वह ‘कर्मणि प्रयोग’ कहलाता है। जैसे- 1.उपन्यास मेरे द्वारा पढ़ा गया।
2.छात्रों से निबंध लिखे गए।
3.युद्ध में हजारों सैनिक मारे गए।
इन वाक्यों में ‘उपन्यास’, ‘सैनिक’, कर्म कर्ता की स्थिति में हैं अतः उनकी प्रधानता है। इनमें क्रिया का रूप कर्म के लिंग, वचन और पुरुष के अनुरूप बदला है, अतः यहाँ ‘कर्मणि प्रयोग’ है।
3.भावे प्रयोग- कर्तरि वाच्य की सकर्मक क्रियाएँ, जब उनके कर्ता और कर्म दोनों विभक्तियुक्त हों तो वे ‘भावे प्रयोग’ के अंतर्गत आती हैं। इसी प्रकार भाववाच्य की सभी क्रियाएँ भी भावे प्रयोग में मानी जाती है। जैसे-
1.अनीता ने बेल को सींचा।
2.लड़कों ने पत्रों को देखा है।
3.लड़कियों ने पुस्तकों को पढ़ा है।
4.अब उससे चला नहीं जाता है।
इन वाक्यों की क्रियाओं के लिंग, वचन और पुरुष न कर्ता के अनुसार हैं और न ही कर्म के अनुसार, अपितु वे एकवचन, पुल्लिंग और अन्य पुरुष हैं। इस प्रकार के ‘प्रयोग भावे’ प्रयोग कहलाते हैं।
वाच्य परिवर्तन
1.कर्तृवाच्य से कर्मवाच्य बनाना-
(1) कर्तृवाच्य की क्रिया को सामान्य भूतकाल में बदलना चाहिए।
(2) उस परिवर्तित क्रिया-रूप के साथ काल, पुरुष, वचन और लिंग के अनुरूप जाना क्रिया का रूप जोड़ना चाहिए।
(3) इनमें ‘से’ अथवा ‘के द्वारा’ का प्रयोग करना चाहिए। जैसे-
कर्तृवाच्य कर्मवाच्य
1.श्यामा उपन्यास लिखती है। श्यामा से उपन्यास लिखा जाता है।
2.श्यामा ने उपन्यास लिखा। श्यामा से उपन्यास लिखा गया।
3.श्यामा उपन्यास लिखेगी। श्यामा से (के द्वारा) उपन्यास लिखा जाएगा।
2.कर्तृवाच्य से भाववाच्य बनाना-
(1) इसके लिए क्रिया अन्य पुरुष और एकवचन में रखनी चाहिए।
(2) कर्ता में करण कारक की विभक्ति लगानी चाहिए।
(3) क्रिया को सामान्य भूतकाल में लाकर उसके काल के अनुरूप जाना क्रिया का रूप जोड़ना चाहिए।
(4) आवश्यकतानुसार निषेधसूचक ‘नहीं’ का प्रयोग करना चाहिए। जैसे-
कर्तृवाच्य भाववाच्य
1.बच्चे नहीं दौड़ते। बच्चों से दौड़ा नहीं जाता।
2.पक्षी नहीं उड़ते। पक्षियों से उड़ा नहीं जाता।
3.बच्चा नहीं सोया। बच्चे से सोया नहीं जाता।
क्रिया-विशेषण
क्रिया-विशेषण- जो शब्द क्रिया की विशेषता प्रकट करते हैं वे क्रिया-विशेषण कहलाते हैं। जैसे- 1.सोहन सुंदर लिखता है। 2.गौरव यहाँ रहता है। 3.संगीता प्रतिदिन पढ़ती है। इन वाक्यों में ‘सुन्दर’, ‘यहाँ’ और ‘प्रतिदिन’ शब्द क्रिया की विशेषता बतला रहे हैं। अतः ये शब्द क्रिया-विशेषण हैं।
अर्थानुसार क्रिया-विशेषण के निम्नलिखित चार भेद हैं-
1. कालवाचक क्रिया-विशेषण।
2. स्थानवाचक क्रिया-विशेषण।
3. परिमाणवाचक क्रिया-विशेषण।
4. रीतिवाचक क्रिया-विशेषण।
1.कालवाचक क्रिया-विशेषण- जिस क्रिया-विशेषण शब्द से कार्य के होने का समय ज्ञात हो वह कालवाचक क्रिया-विशेषण कहलाता है। इसमें बहुधा ये शब्द प्रयोग में आते हैं- यदा, कदा, जब, तब, हमेशा, तभी, तत्काल, निरंतर, शीघ्र, पूर्व, बाद, पीछे, घड़ी-घड़ी, अब, तत्पश्चात्, तदनंतर, कल, कई बार, अभी फिर कभी आदि।
2.स्थानवाचक क्रिया-विशेषण- जिस क्रिया-विशेषण शब्द द्वारा क्रिया के होने के स्थान का बोध हो वह स्थानवाचक क्रिया-विशेषण कहलाता है। इसमें बहुधा ये शब्द प्रयोग में आते हैं- भीतर, बाहर, अंदर, यहाँ, वहाँ, किधर, उधर, इधर, कहाँ, जहाँ, पास, दूर, अन्यत्र, इस ओर, उस ओर, दाएँ, बाएँ, ऊपर, नीचे आदि।
3.परिमाणवाचक क्रिया-विशेषण-जो शब्द क्रिया का परिमाण बतलाते हैं वे ‘परिमाणवाचक क्रिया-विशेषण’ कहलाते हैं। इसमें बहुधा थोड़ा-थोड़ा, अत्यंत, अधिक, अल्प, बहुत, कुछ, पर्याप्त, प्रभूत, कम, न्यून, बूँद-बूँद, स्वल्प, केवल, प्रायः अनुमानतः, सर्वथा आदि शब्द प्रयोग में आते हैं।
कुछ शब्दों का प्रयोग परिमाणवाचक विशेषण और परिमाणवाचक क्रिया-विशेषण दोनों में समान रूप से किया जाता है। जैसे-थोड़ा, कम, कुछ काफी आदि।
4.रीतिवाचक क्रिया-विशेषण- जिन शब्दों के द्वारा क्रिया के संपन्न होने की रीति का बोध होता है वे ‘रीतिवाचक क्रिया-विशेषण’ कहलाते हैं। इनमें बहुधा ये शब्द प्रयोग में आते हैं- अचानक, सहसा, एकाएक, झटपट, आप ही, ध्यानपूर्वक, धड़ाधड़, यथा, तथा, ठीक, सचमुच, अवश्य, वास्तव में, निस्संदेह, बेशक, शायद, संभव हैं, कदाचित्, बहुत करके, हाँ, ठीक, सच, जी, जरूर, अतएव, किसलिए, क्योंकि, नहीं, न, मत, कभी नहीं, कदापि नहीं आदि।
संधि
संधि-संधि शब्द का अर्थ है मेल। दो निकटवर्ती वर्णों के परस्पर मेल से जो विकार (परिवर्तन) होता है वह संधि कहलाता है। जैसे-सम्+तोष=संतोष। देव+इंद्र=देवेंद्र। भानु+उदय=भानूदय।
संधि के भेद-संधि तीन प्रकार की होती हैं-
1. स्वर संधि।
2. व्यंजन संधि।
3. विसर्ग संधि।
1. स्वर संधि
दो स्वरों के मेल से होने वाले विकार (परिवर्तन) को स्वर-संधि कहते हैं। जैसे-विद्या+आलय=विद्यालय।
स्वर-संधि पाँच प्रकार की होती हैं-
(क) दीर्घ संधि
ह्रस्व या दीर्घ अ, इ, उ के बाद यदि ह्रस्व या दीर्घ अ, इ, उ आ जाएँ तो दोनों मिलकर दीर्घ आ, ई, और ऊ हो जाते हैं। जैसे-
(क) अ+अ=आ धर्म+अर्थ=धर्मार्थ, अ+आ=आ-हिम+आलय=हिमालय।
आ+अ=आ आ विद्या+अर्थी=विद्यार्थी आ+आ=आ-विद्या+आलय=विद्यालय।
(ख) इ और ई की संधि-
इ+इ=ई- रवि+इंद्र=रवींद्र, मुनि+इंद्र=मुनींद्र।
इ+ई=ई- गिरि+ईश=गिरीश मुनि+ईश=मुनीश।
ई+इ=ई- मही+इंद्र=महींद्र नारी+इंदु=नारींदु
ई+ई=ई- नदी+ईश=नदीश मही+ईश=महीश
(ग) उ और ऊ की संधि-
उ+उ=ऊ- भानु+उदय=भानूदय विधु+उदय=विधूदय
उ+ऊ=ऊ- लघु+ऊर्मि=लघूर्मि सिधु+ऊर्मि=सिंधूर्मि
ऊ+उ=ऊ- वधू+उत्सव=वधूत्सव वधू+उल्लेख=वधूल्लेख
ऊ+ऊ=ऊ- भू+ऊर्ध्व=भूर्ध्व वधू+ऊर्जा=वधूर्जा
(ख) गुण संधि
इसमें अ, आ के आगे इ, ई हो तो ए, उ, ऊ हो तो ओ, तथा ऋ हो तो अर् हो जाता है। इसे गुण-संधि कहते हैं जैसे-
(क) अ+इ=ए- नर+इंद्र=नरेंद्र अ+ई=ए- नर+ईश=नरेश
आ+इ=ए- महा+इंद्र=महेंद्र आ+ई=ए महा+ईश=महेश
(ख) अ+ई=ओ ज्ञान+उपदेश=ज्ञानोपदेश आ+उ=ओ महा+उत्सव=महोत्सव
अ+ऊ=ओ जल+ऊर्मि=जलोर्मि आ+ऊ=ओ महा+ऊर्मि=महोर्मि
(ग) अ+ऋ=अर् देव+ऋषि=देवर्षि
(घ) आ+ऋ=अर् महा+ऋषि=महर्षि
(ग) वृद्धि संधि
अ आ का ए ऐ से मेल होने पर ऐ अ आ का ओ, औ से मेल होने पर औ हो जाता है। इसे वृद्धि संधि कहते हैं। जैसे-
(क) अ+ए=ऐ एक+एक=एकैक अ+ऐ=ऐ मत+ऐक्य=मतैक्य
आ+ए=ऐ सदा+एव=सदैव आ+ऐ=ऐ महा+ऐश्वर्य=महैश्वर्य
(ख) अ+ओ=औ वन+ओषधि=वनौषधि आ+ओ=औ महा+औषध=महौषधि
अ+औ=औ परम+औषध=परमौषध आ+औ=औ महा+औषध=महौषध
(घ) यण संधि
(क) इ, ई के आगे कोई विजातीय (असमान) स्वर होने पर इ ई को ‘य्’ हो जाता है। (ख) उ, ऊ के आगे किसी विजातीय स्वर के आने पर उ ऊ को ‘व्’ हो जाता है। (ग) ‘ऋ’ के आगे किसी विजातीय स्वर के आने पर ऋ को ‘र्’ हो जाता है। इन्हें यण-संधि कहते हैं।
इ+अ=य्+अ यदि+अपि=यद्यपि ई+आ=य्+आ इति+आदि=इत्यादि।
ई+अ=य्+अ नदी+अर्पण=नद्यर्पण ई+आ=य्+आ देवी+आगमन=देव्यागमन
(घ) उ+अ=व्+अ अनु+अय=अन्वय उ+आ=व्+आ सु+आगत=स्वागत
उ+ए=व्+ए अनु+एषण=अन्वेषण ऋ+अ=र्+आ पितृ+आज्ञा=पित्राज्ञा
(ड़) अयादि संधि- ए, ऐ और ओ औ से परे किसी भी स्वर के होने पर क्रमशः अय्, आय्, अव् और आव् हो जाता है। इसे अयादि संधि कहते हैं।
(क) ए+अ=अय्+अ ने+अन+नयन (ख) ऐ+अ=आय्+अ गै+अक=गायक
(ग) ओ+अ=अव्+अ पो+अन=पवन (घ) औ+अ=आव्+अ पौ+अक=पावक
औ+इ=आव्+इ नौ+इक=नाविक
2. व्यंजन संधि
व्यंजन का व्यंजन से अथवा किसी स्वर से मेल होने पर जो परिवर्तन होता है उसे व्यंजन संधि कहते हैं। जैसे-शरत्+चंद्र=शरच्चंद्र।
(क) किसी वर्ग के पहले वर्ण क्, च्, ट्, त्, प् का मेल किसी वर्ग के तीसरे अथवा चौथे वर्ण या य्, र्, ल्, व्, ह या किसी स्वर से हो जाए तो क् को ग् च् को ज्, ट् को ड् और प् को ब् हो जाता है। जैसे-
क्+ग=ग्ग दिक्+गज=दिग्गज। क्+ई=गी वाक्+ईश=वागीश
च्+अ=ज् अच्+अंत=अजंत ट्+आ=डा षट्+आनन=षडानन
प+ज+ब्ज अप्+ज=अब्ज
(ख) यदि किसी वर्ग के पहले वर्ण (क्, च्, ट्, त्, प्) का मेल न् या म् वर्ण से हो तो उसके स्थान पर उसी वर्ग का पाँचवाँ वर्ण हो जाता है। जैसे-
क्+म=ड़् वाक्+मय=वाड़्मय च्+न=ञ् अच्+नाश=अञ्नाश
ट्+म=ण् षट्+मास=षण्मास त्+न=न् उत्+नयन=उन्नयन
प्+म्=म् अप्+मय=अम्मय
(ग) त् का मेल ग, घ, द, ध, ब, भ, य, र, व या किसी स्वर से हो जाए तो द् हो जाता है। जैसे-
त्+भ=द्भ सत्+भावना=सद्भावना त्+ई=दी जगत्+ईश=जगदीश
त्+भ=द्भ भगवत्+भक्ति=भगवद्भक्ति त्+र=द्र तत्+रूप=तद्रूप
त्+ध=द्ध सत्+धर्म=सद्धर्म
(घ) त् से परे च् या छ् होने पर च, ज् या झ् होने पर ज्, ट् या ठ् होने पर ट्, ड् या ढ् होने पर ड् और ल होने पर ल् हो जाता है। जैसे-
त्+च=च्च उत्+चारण=उच्चारण त्+ज=ज्ज सत्+जन=सज्जन
त्+झ=ज्झ उत्+झटिका=उज्झटिका त्+ट=ट्ट तत्+टीका=तट्टीका
त्+ड=ड्ड उत्+डयन=उड्डयन त्+ल=ल्ल उत्+लास=उल्लास
(ड़) त् का मेल यदि श् से हो तो त् को च् और श् का छ् बन जाता है। जैसे-
त्+श्=च्छ उत्+श्वास=उच्छ्वास त्+श=च्छ उत्+शिष्ट=उच्छिष्ट
त्+श=च्छ सत्+शास्त्र=सच्छास्त्र
(च) त् का मेल यदि ह् से हो तो त् का द् और ह् का ध् हो जाता है। जैसे-
त्+ह=द्ध उत्+हार=उद्धार त्+ह=द्ध उत्+हरण=उद्धरण
त्+ह=द्ध तत्+हित=तद्धित
(छ) स्वर के बाद यदि छ् वर्ण आ जाए तो छ् से पहले च् वर्ण बढ़ा दिया जाता है। जैसे-
अ+छ=अच्छ स्व+छंद=स्वच्छंद आ+छ=आच्छ आ+छादन=आच्छादन
इ+छ=इच्छ संधि+छेद=संधिच्छेद उ+छ=उच्छ अनु+छेद=अनुच्छेद
(ज) यदि म् के बाद क् से म् तक कोई व्यंजन हो तो म् अनुस्वार में बदल जाता है। जैसे-
म्+च्=ं किम्+चित=किंचित म्+क=ं किम्+कर=किंकर
म्+क=ं सम्+कल्प=संकल्प म्+च=ं सम्+चय=संचय
म्+त=ं सम्+तोष=संतोष म्+ब=ं सम्+बंध=संबंध
म्+प=ं सम्+पूर्ण=संपूर्ण
(झ) म् के बाद म का द्वित्व हो जाता है। जैसे-
म्+म=म्म सम्+मति=सम्मति म्+म=म्म सम्+मान=सम्मान
(ञ) म् के बाद य्, र्, ल्, व्, श्, ष्, स्, ह् में से कोई व्यंजन होने पर म् का अनुस्वार हो जाता है। जैसे-
म्+य=ं सम्+योग=संयोग म्+र=ं सम्+रक्षण=संरक्षण
म्+व=ं सम्+विधान=संविधान म्+व=ं सम्+वाद=संवाद
म्+श=ं सम्+शय=संशय म्+ल=ं सम्+लग्न=संलग्न
म्+स=ं सम्+सार=संसार
(ट) ऋ,र्, ष् से परे न् का ण् हो जाता है। परन्तु चवर्ग, टवर्ग, तवर्ग, श और स का व्यवधान हो जाने पर न् का ण् नहीं होता। जैसे-
र्+न=ण परि+नाम=परिणाम र्+म=ण प्र+मान=प्रमाण
(ठ) स् से पहले अ, आ से भिन्न कोई स्वर आ जाए तो स् को ष हो जाता है। जैसे-
भ्+स्=ष अभि+सेक=अभिषेक नि+सिद्ध=निषिद्ध वि+सम+विषम
3. विसर्ग-संधि
विसर्ग (:) के बाद स्वर या व्यंजन आने पर विसर्ग में जो विकार होता है उसे विसर्ग-संधि कहते हैं। जैसे-मनः+अनुकूल=मनोनुकूल।

(क) विसर्ग के पहले यदि ‘अ’ और बाद में भी ‘अ’ अथवा वर्गों के तीसरे, चौथे पाँचवें वर्ण, अथवा य, र, ल, व हो तो विसर्ग का ओ हो जाता है। जैसे-
मनः+अनुकूल=मनोनुकूल अधः+गति=अधोगति मनः+बल=मनोबल

(ख) विसर्ग से पहले अ, आ को छोड़कर कोई स्वर हो और बाद में कोई स्वर हो, वर्ग के तीसरे, चौथे, पाँचवें वर्ण अथवा य्, र, ल, व, ह में से कोई हो तो विसर्ग का र या र् हो जाता है। जैसे-
निः+आहार=निराहार निः+आशा=निराशा निः+धन=निर्धन

(ग) विसर्ग से पहले कोई स्वर हो और बाद में च, छ या श हो तो विसर्ग का श हो जाता है। जैसे-
निः+चल=निश्चल निः+छल=निश्छल दुः+शासन=दुश्शासन

(घ)विसर्ग के बाद यदि त या स हो तो विसर्ग स् बन जाता है। जैसे-
नमः+ते=नमस्ते निः+संतान=निस्संतान दुः+साहस=दुस्साहस

(ड़) विसर्ग से पहले इ, उ और बाद में क, ख, ट, ठ, प, फ में से कोई वर्ण हो तो विसर्ग का ष हो जाता है। जैसे-
निः+कलंक=निष्कलंक चतुः+पाद=चतुष्पाद निः+फल=निष्फल

(ड)विसर्ग से पहले अ, आ हो और बाद में कोई भिन्न स्वर हो तो विसर्ग का लोप हो जाता है। जैसे-
निः+रोग=निरोग निः+रस=नीरस

(छ) विसर्ग के बाद क, ख अथवा प, फ होने पर विसर्ग में कोई परिवर्तन नहीं होता। जैसे-
अंतः+करण=अंतःकरण








समास
समास का तात्पर्य है ‘संक्षिप्तीकरण’। दो या दो से अधिक शब्दों से मिलकर बने हुए एक नवीन एवं सार्थक शब्द को समास कहते हैं। जैसे-‘रसोई के लिए घर’ इसे हम ‘रसोईघर’ भी कह सकते हैं।
सामासिक शब्द- समास के नियमों से निर्मित शब्द सामासिक शब्द कहलाता है। इसे समस्तपद भी कहते हैं। समास होने के बाद विभक्तियों के चिह्न (परसर्ग) लुप्त हो जाते हैं। जैसे-राजपुत्र।
समास-विग्रह- सामासिक शब्दों के बीच के संबंध को स्पष्ट करना समास-विग्रह कहलाता है। जैसे-राजपुत्र-राजा का पुत्र।
पूर्वपद और उत्तरपद- समास में दो पद (शब्द) होते हैं। पहले पद को पूर्वपद और दूसरे पद को उत्तरपद कहते हैं। जैसे-गंगाजल। इसमें गंगा पूर्वपद और जल उत्तरपद है।
समास के भेद
समास के चार भेद हैं-
1. अव्ययीभाव समास।
2. तत्पुरुष समास।
3. द्वंद्व समास।
4. बहुव्रीहि समास।
1. अव्ययीभाव समास
जिस समास का पहला पद प्रधान हो और वह अव्यय हो उसे अव्ययीभाव समास कहते हैं। जैसे-यथामति (मति के अनुसार), आमरण (मृत्यु कर) इनमें यथा और आ अव्यय हैं।
कुछ अन्य उदाहरण-
आजीवन - जीवन-भर, यथासामर्थ्य - सामर्थ्य के अनुसार
यथाशक्ति - शक्ति के अनुसार, यथाविधि विधि के अनुसार
यथाक्रम - क्रम के अनुसार, भरपेट पेट भरकर
हररोज़ - रोज़-रोज़, हाथोंहाथ - हाथ ही हाथ में
रातोंरात - रात ही रात में, प्रतिदिन - प्रत्येक दिन
बेशक - शक के बिना, निडर - डर के बिना
निस्संदेह - संदेह के बिना, हरसाल - हरेक साल
अव्ययीभाव समास की पहचान- इसमें समस्त पद अव्यय बन जाता है अर्थात समास होने के बाद उसका रूप कभी नहीं बदलता है। इसके साथ विभक्ति चिह्न भी नहीं लगता। जैसे-ऊपर के समस्त शब्द है।
2. तत्पुरुष समास
जिस समास का उत्तरपद प्रधान हो और पूर्वपद गौण हो उसे तत्पुरुष समास कहते हैं। जैसे-तुलसीदासकृत=तुलसी द्वारा कृत (रचित)
ज्ञातव्य- विग्रह में जो कारक प्रकट हो उसी कारक वाला वह समास होता है। विभक्तियों के नाम के अनुसार इसके छह भेद हैं-
(1) कर्म तत्पुरुष गिरहकट गिरह को काटने वाला
(2) करण तत्पुरुष मनचाहा मन से चाहा
(3) संप्रदान तत्पुरुष रसोईघर रसोई के लिए घर
(4) अपादान तत्पुरुष देशनिकाला देश से निकाला
(5) संबंध तत्पुरुष गंगाजल गंगा का जल
(6) अधिकरण तत्पुरुष नगरवास नगर में वास
(क) नञ तत्पुरुष समास
जिस समास में पहला पद निषेधात्मक हो उसे नञ तत्पुरुष समास कहते हैं। जैसे-
समस्त पद समास-विग्रह समस्त पद समास-विग्रह
असभ्य न सभ्य अनंत न अंत
अनादि न आदि असंभव न संभव
(ख) कर्मधारय समास
जिस समास का उत्तरपद प्रधान हो और पूर्ववद व उत्तरपद में विशेषण-विशेष्य अथवा उपमान-उपमेय का संबंध हो वह कर्मधारय समास कहलाता है। जैसे-समस्त पद समास-विग्रह समस्त पद समात विग्रह
चंद्रमुख चंद्र जैसा मुख कमलनयन कमल के समान नयन
देहलता देह रूपी लता दहीबड़ा दही में डूबा बड़ा
नीलकमल नीला कमल पीतांबर पीला अंबर (वस्त्र)
सज्जन सत् (अच्छा) जन नरसिंह नरों में सिंह के समान



(ग) द्विगु समास
जिस समास का पूर्वपद संख्यावाचक विशेषण हो उसे द्विगु समास कहते हैं। इससे समूह अथवा समाहार का बोध होता है। जैसे-समस्त पद समात-विग्रह समस्त पद समास विग्रह
नवग्रह नौ ग्रहों का मसूह दोपहर दो पहरों का समाहार
त्रिलोक तीनों लोकों का समाहार चौमासा चार मासों का समूह
नवरात्र नौ रात्रियों का समूह शताब्दी सौ अब्दो (सालों) का समूह
अठन्नी आठ आनों का समूह



3. द्वंद्व समास
जिस समास के दोनों पद प्रधान होते हैं तथा विग्रह करने पर ‘और’, अथवा, ‘या’, एवं लगता है, वह द्वंद्व समास कहलाता है। जैसे-समस्त पद समास-विग्रह समस्त पद समास-विग्रह
पाप-पुण्य पाप और पुण्य अन्न-जल अन्न और जल
सीता-राम सीता और राम खरा-खोटा खरा और खोटा
ऊँच-नीच ऊँच और नीच राधा-कृष्ण राधा और कृष्ण


4. बहुव्रीहि समास
जिस समास के दोनों पद अप्रधान हों और समस्तपद के अर्थ के अतिरिक्त कोई सांकेतिक अर्थ प्रधान हो उसे बहुव्रीहि समास कहते हैं। जैसे-समस्त पद समास-विग्रह
दशानन दश है आनन (मुख) जिसके अर्थात् रावण
नीलकंठ नीला है कंठ जिसका अर्थात् शिव
सुलोचना सुंदर है लोचन जिसके अर्थात् मेघनाद की पत्नी
पीतांबर पीले है अम्बर (वस्त्र) जिसके अर्थात् श्रीकृष्ण
लंबोदर लंबा है उदर (पेट) जिसका अर्थात् गणेशजी
दुरात्मा बुरी आत्मा वाला (कोई दुष्ट)
श्वेतांबर श्वेत है जिसके अंबर (वस्त्र) अर्थात् सरस्वती
संधि और समास में अंतर
संधि वर्णों में होती है। इसमें विभक्ति या शब्द का लोप नहीं होता है। जैसे-देव+आलय=देवालय। समास दो पदों में होता है। समास होने पर विभक्ति या शब्दों का लोप भी हो जाता है। जैसे-माता-पिता=माता और पिता।
कर्मधारय और बहुव्रीहि समास में अंतर- कर्मधारय में समस्त-पद का एक पद दूसरे का विशेषण होता है। इसमें शब्दार्थ प्रधान होता है। जैसे-नीलकंठ=नीला कंठ। बहुव्रीहि में समस्त पद के दोनों पदों में विशेषण-विशेष्य का संबंध नहीं होता अपितु वह समस्त पद ही किसी अन्य संज्ञादि का विशेषण होता है। इसके साथ ही शब्दार्थ गौण होता है और कोई भिन्नार्थ ही प्रधान हो जाता है। जैसे-नील+कंठ=नीला है कंठ जिसका अर्थात शिव।

विराम-चिह्न
विराम-चिह्न- ‘विराम’ शब्द का अर्थ है ‘रुकना’। जब हम अपने भावों को भाषा के द्वारा व्यक्त करते हैं तब एक भाव की अभिव्यक्ति के बाद कुछ देर रुकते हैं, यह रुकना ही विराम कहलाता है।
इस विराम को प्रकट करने हेतु जिन कुछ चिह्नों का प्रयोग किया जाता है, विराम-चिह्न कहलाते हैं। वे इस प्रकार हैं-
1. अल्प विराम (,)- पढ़ते अथवा बोलते समय बहुत थोड़ा रुकने के लिए अल्प विराम-चिह्न का प्रयोग किया जाता है। जैसे-सीता, गीता और लक्ष्मी। यह सुंदर स्थल, जो आप देख रहे हैं, बापू की समाधि है। हानि-लाभ, जीवन-मरण, यश-अपयश विधि हाथ।
2. अर्ध विराम (;)- जहाँ अल्प विराम की अपेक्षा कुछ ज्यादा देर तक रुकना हो वहाँ इस अर्ध-विराम चिह्न का प्रयोग किया जाता है। जैसे-सूर्योदय हो गया; अंधकार न जाने कहाँ लुप्त हो गया।
3. पूर्ण विराम (।)- जहाँ वाक्य पूर्ण होता है वहाँ पूर्ण विराम-चिह्न का प्रयोग किया जाता है। जैसे-मोहन पुस्तक पढ़ रहा है। वह फूल तोड़ता है।
4. विस्मयादिबोधक चिह्न (!)- विस्मय, हर्ष, शोक, घृणा आदि भावों को दर्शाने वाले शब्द के बाद अथवा कभी-कभी ऐसे वाक्यांश या वाक्य के अंत में भी विस्मयादिबोधक चिह्न का प्रयोग किया जाता है। जैसे- हाय ! वह बेचारा मारा गया। वह तो अत्यंत सुशील था ! बड़ा अफ़सोस है !
5. प्रश्नवाचक चिह्न (?)- प्रश्नवाचक वाक्यों के अंत में प्रश्नवाचक चिह्न का प्रयोग किया जाता है। जैसे-किधर चले ? तुम कहाँ रहते हो ?
6. कोष्ठक ()- इसका प्रयोग पद (शब्द) का अर्थ प्रकट करने हेतु, क्रम-बोध और नाटक या एकांकी में अभिनय के भावों को व्यक्त करने के लिए किया जाता है। जैसे-निरंतर (लगातार) व्यायाम करते रहने से देह (शरीर) स्वस्थ रहता है। विश्व के महान राष्ट्रों में (1) अमेरिका, (2) रूस, (3) चीन, (4) ब्रिटेन आदि हैं।
नल-(खिन्न होकर) ओर मेरे दुर्भाग्य ! तूने दमयंती को मेरे साथ बाँधकर उसे भी जीवन-भर कष्ट दिया।
7. निर्देशक चिह्न (-)- इसका प्रयोग विषय-विभाग संबंधी प्रत्येक शीर्षक के आगे, वाक्यों, वाक्यांशों अथवा पदों के मध्य विचार अथवा भाव को विशिष्ट रूप से व्यक्त करने हेतु, उदाहरण अथवा जैसे के बाद, उद्धरण के अंत में, लेखक के नाम के पूर्व और कथोपकथन में नाम के आगे किया जाता है। जैसे-समस्त जीव-जंतु-घोड़ा, ऊँट, बैल, कोयल, चिड़िया सभी व्याकुल थे। तुम सो रहे हो- अच्छा, सोओ।
द्वारपाल-भगवन ! एक दुबला-पतला ब्राह्मण द्वार पर खड़ा है।
8. उद्धरण चिह्न (‘‘ ’’)- जब किसी अन्य की उक्ति को बिना किसी परिवर्तन के ज्यों-का-त्यों रखा जाता है, तब वहाँ इस चिह्न का प्रयोग किया जाता है। इसके पूर्व अल्प विराम-चिह्न लगता है। जैसे-नेताजी ने कहा था, ‘‘तुम हमें खून दो, हम तुम्हें आजादी देंगे।’’, ‘‘ ‘रामचरित मानस’ तुलसी का अमर काव्य ग्रंथ है।’’
9. आदेश चिह्न (:- )- किसी विषय को क्रम से लिखना हो तो विषय-क्रम व्यक्त करने से पूर्व इसका प्रयोग किया जाता है। जैसे-सर्वनाम के प्रमुख पाँच भेद हैं :-
(1) पुरुषवाचक, (2) निश्चयवाचक, (3) अनिश्चयवाचक, (4) संबंधवाचक, (5) प्रश्नवाचक।
10. योजक चिह्न (-)- समस्त किए हुए शब्दों में जिस चिह्न का प्रयोग किया जाता है, वह योजक चिह्न कहलाता है। जैसे-माता-पिता, दाल-भात, सुख-दुख, पाप-पुण्य।
11. लाघव चिह्न (.)- किसी बड़े शब्द को संक्षेप में लिखने के लिए उस शब्द का प्रथम अक्षर लिखकर उसके आगे शून्य लगा देते हैं। जैसे-पंडित=पं., डॉक्टर=डॉ., प्रोफेसर=प्रो.।

पद-परिचय
पद-परिचय- वाक्यगत शब्दों के रूप और उनका पारस्परिक संबंध बताने में जिस प्रक्रिया की आवश्यकता पड़ती है वह पद-परिचय या शब्दबोध कहलाता है।
परिभाषा-वाक्यगत प्रत्येक पद (शब्द) का व्याकरण की दृष्टि से पूर्ण परिचय देना ही पद-परिचय कहलाता है।
शब्द आठ प्रकार के होते हैं-
1.संज्ञा- भेद, लिंग, वचन, कारक, क्रिया अथवा अन्य शब्दों से संबंध।
2.सर्वनाम- भेद, पुरुष, लिंग, वचन, कारक, क्रिया अथवा अन्य शब्दों से संबंध। किस संज्ञा के स्थान पर आया है (यदि पता हो)।
3.क्रिया- भेद, लिंग, वचन, प्रयोग, धातु, काल, वाच्य, कर्ता और कर्म से संबंध।
4.विशेषण- भेद, लिंग, वचन और विशेष्य की विशेषता।
5.क्रिया-विशेषण- भेद, जिस क्रिया की विशेषता बताई गई हो उसके बारे में निर्देश।
6.संबंधबोधक- भेद, जिससे संबंध है उसका निर्देश।
7.समुच्चयबोधक- भेद, अन्वित शब्द, वाक्यांश या वाक्य।
8.विस्मयादिबोधक- भेद अर्थात कौन-सा भाव स्पष्ट कर रहा है।

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